Sunday, February 25, 2024

अभिलाषा

अभिलाषा
(राजीव "रंजन")

बचपन में अभिलाषा थी चांद तारे छूने की
मन में भरी उत्सुकता थी नभ में उड़ने की
आदर्शों का अंबार लिए, मन का लिए विश्वास
निकल पड़े जीवन पथ पर मन में लिए हम आस

सच्चाइयों से जब हुआ सामना, माथा गया घूम
व्यवस्थाओं की पकड़ देखी, गरीबों का हुजूम
नेताओं के वादे देखे, अफसरों की देखी अकड़
व्यापारियों की लालच देखी, पैसों की देखी पकड़

सड़कों पर बचपन देखा मांगते चौराहों पर भीख
औरतों की बेकद्री देखी समाज की खोखली सीख
धर्मो का प्रवचन देखा, बाबाओं का बढ़़ता वर्चस्व
त्यौहारों का बाजारीकरण देखा, पैसा हुआ सर्वस्व 

शिक्षा की तो बात न पूछो, व्यवस्था का हुआ सर्वनाश
परीक्षाओं में सामुहिक चोरी देखी, होते हुए देखा नाश
बेपढ़े लिखे पीएचडी धारी देखे, चोरी कर किया रिसर्च
बाज़ारों में बिकती डिग्रीयां देखी, खरीदते, कर पैसा खर्च

उत्सुकताएं अभिलाषाएं ले चले नयी राहों पर
कुछ बाधा थे कुछ कांटे थे कुछ थे अगर मगर
मन में लिए सुहाने सपने निकले अपने डगर 
बदलेंगे संसार, था, हौसला और था, लम्बा सफर

भारत का बदलता स्वरुप भी देखा प्रगति के नये आयाम
डाॅक्टर इन्जीनियर बनने का जुनून देखा, स्पर्धा का संग्राम 
दुर्व्यवस्था के बाद भी पिछड़े प्रदेशों से शिक्षा में होता नाम
देशी और विदेशी संस्थाओं में भारतीयों द्वारा उत्कृष्ट काम

एक हार के बाद, फौज का युद्धों में देखा लहराता परचम
अंतरिक्ष विज्ञान में विलक्षण प्रतिभा और बढ़ता दमखम
आईटी में अद्वितीय विकास और विश्व में स्थापित स्थान
मोबाइल का विस्तार, गरीबों का बना आधार, बढ़ता ज्ञान

वैज्ञानिक, तकनीकी शिक्षा, व रीसर्चों का बढ़ता वर्चस्व
आईआईटी और आईआईएमों का विश्व में फैलता यशस्व
भारत के व्यापारियों ने भी चुनोतियों का लिया लगाम थाम
प्रतिस्पर्धा में पीछे न रहे, गुणवत्ता में छुए नये नये आयाम

उत्कट है अभिलाषा मेरे भारत की हो प्रगति अजस्र अनल्प
विश्व में स्थापित हो पारंपरिक स्थान सम्मान पुन: इस कल्प
खुशहाल और समृद्ध हों भारत के लोग, बढ़े ज्ञान विज्ञान
वसुधैव कुटुम्बकम हो चरितार्थ, सत्य अहिंसा का हो सम्मान
















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