Sunday, June 15, 2025

एक नारी की अनूठी कहानी

एक नारी की अनूठी कहानी 

राजीव 'रंजन' 

एक कहानी अनूठी सी आज सुनाता हूं

नारी के जीवन की विडंबना बताता हूं

धूम धाम से बारात आई गांव में उसकी

१४ वर्ष की थी, शादी हो रही थी जिसकी

गाजा बाजा, नाच नचनियों का था बंदोबस्त 

खाना पीना इतना अच्छा कि सब थे मस्त

समय आया बिदाई का, मिलनी पर थे सब बैठे

लड़के वाले तो पहले से ही रहते हैं कुछ ऐंठे

बे सिर पैर के मजाक पर, अहंकार टकराया

न जाने कब इज्जत का मामला गहराया

बिदाई के धोती की टोकरी को मार लात

उठ चली बारात, बिना खाए मिलनी की भात 

दुल्हन की डोली पहले ही विदा हो चुकी थी

गांव से बाहर सनिचरा बाबा के पास रुकी थी

रोती कलपती, गई वो बच्ची अपनो को छोड़

२५ वर्षों तक, न लौट पाई मैके, भाग्य को मोड़

मां बाप, नातेदार, रिस्तेदार सब स्वर्ग सिधारे

बेटी मिल न पाई कभी उनसे, लौट अपने द्वारे

खोखले अहंकारों की बली चढ़ गयी थी नारी

उसके आंसूओं की कीमत समाज ने नकारी

भूल अपने अस्तित्व को बनी मां, चाची, दादी

नए घर और समाज को अपना, वो सीधी सादी

दिन बीता, वर्ष बीते, बीता एक युग, पलटा भाग्य

दो भाईयों की थी अकेली बहन, जागा अनुराग 

भाई थे पढ़ें लिखे, छोड़ दकियानूसी ख्याल

आए बहन के द्वार स्नेह की अपनी बाहें पसार

बहन घंटो रोती रही, छोटे भाइयों से गले मिल

ईश्वर ने जैसे लौटाई थी यादें, खुशियां और दिल

कहां बैठाऊं, क्या खिलाऊं चल रहा था उहापोह

गांव घर के लोग न अघाते थे देख बहन भाई का मोह

साग्रह किया बहन को विदा कर ले जाने की इच्छा

सहर्ष हुई सब तैयारी, और खत्म हुई वर्षों की प्रतीक्षा

अद्वितीय हुआ मैकै में बहन का स्वागत सत्कार 

छ: माह बाद पतिदेव आए विदा कराने ससुरार

भाई ने प्रेम से पूछा कि 'दीदी क्या दें तुम्हें विदाई'

मां ने सरस हृदय से मांगा अपने पुत्र की पढ़ाई 

"भाई आप तो सक्षम बैरिस्टर हैं, मेरे पुत्र को पढ़ा दें"

"अपने पुत्र के साथ इस पर भी ज्ञान की वर्षा करा दें"

भाई ने वचन दिया और मेरे पिता इस तरह पढ़ पाए

अपने मामा के संरक्षण में उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाऐ

उसके कारण हम तीन भाईयों को भी हुई प्राप्त शिक्षा  

और हमारे बच्चे भी पढ़ लिख कर पाई दीक्षा

परिवार ने जाना पढ़ाई लिखाई का जीवन में महत्व

पर इस सब के पीछे था एक नारी का व्यक्तित्व 

जीवन भर के उसके त्याग और स्नेह की कहानी

और आंसूओं से लिखे सपने और उसकी परेशानी

Sunday, June 1, 2025

Miss you Babua

Miss You Babua


A bond so strong, a heart so true,

My dear Babua, I miss you.

In your absence, I feel lost and blue,

A grief so deep, it's hard to get through.


We shared our laughter, tears, and dreams,

Memories of you, my heart beams.

Your smile, your voice, your gentle ways,

Now echoes of a bygone days


I couldn't be there to say goodbye,

Regret and sorrow, I can't deny.

The pain of losing you is so hard to bear,

A weight that's crushing, a heart that's bare.


Babua, my dear, I'll hold on tight,

To the memories of our love and delight.

Though you're gone, your love remains,

A bittersweet reminder of joy and pain.


Rest now, dear Babua, may peace be yours,

In my heart, your memory will endure.

I'll carry you with me, every step of the way,

And hope that someday, I'll see you again, come what may.


Bhaiya

A tribute to Papa on 1st June 2025

Tribute to Papa on June 1

My father-in-law Shri Vidya Prakash Singh was a remarkable person - with quiet strength and wisdom of a saint. He passed away in AIIMS on the 1st June 2003 after a brief struggle with pancreatic cancer. A tribute to him on his 22nd Punyatithi


22 years rolled by yet your memories are fresh

You stood in our lives like a strong buttress 

With a quiet strength and wisdom of a saint 

You waded through life without complaint


Unconditional acceptance was key to your life 

Be it people, situations, positions or strife

You gave your best to what came your way

Your approach always exercised positive sway


With malice to none and affection for all

To this Papa, you make, even tallest small

Your laughters and chuckles brought smiles

Memories are fresh as we walk our miles 


You left us so soon, leaving a big hole in our hearts

We miss you Papa, your memory never ever departs

In our memories and life, you stand tall like a colossus

Like a true guardian angel forever watching over us 


Today we pay a heartfelt tributes to our ideal

Drawing strength and lessons from the real

Rare are those who leave legacies profound

You were one whose strong memories abound 

Saturday, May 24, 2025

My Wish

My wish
Rajiv Ranjan

Death awaits us all
Let it come when it comes
That's not in my hands
Yet when it comes, 
I want to go with a smile 
Bidding farewell to life 
Leaving behind
My honours and possessions 
Without attachment or regret
For they matter nothing
With gratitude to 
My family and friends
Who stood by me 
In times, good and rough
As I lie there surrounded 
By my loved ones 
What I desire,
When my soul
Hangs in there 
One last time 
To bid adieu
Before that final departure 
Let my good not 
Be cremated with me
But things that you did not like
Forgive me for my sins
Forget the hurt that I caused
Let by gones be by gones
Give me a place in your heart
And cherish the memories
However fleeting they may be 
As I leave, I leave 
A few lessons that I learnt
Be kind and compassionate 
To each other my dear people
There is so much suffering
Lend your ears 
To a sad person
For there is a story there
Silently crying to be heard
Not to be judged
Empathetically listen 
To a bleeding heart
Give emotional air to breath
Poor and helpless suffer the system
Extend a helping hand 
Oft women suffer indignities 
Discrimination is rampant
Unfurl her dreams in everyway
In taking care of others
She forgot to care for herself
Take care of her
There resides a child
In all of us 
Burried under social obligations
Let out that child
And let it enjoy life unfettered
For all has to an end some day 
With age silence grows on us
All are getting silent
All move away
Yet the longings remain
Learn to leave things 
As you go along 
Can't change anything
But ourselves
Accept what can't be changed
Or Remove it, if you can
If nothing works just rise up
And all shall appear so small
That's how I wish to say
Sayonara to life when time comes
And say, 'life you were kind and good' 

सही राह

सही राह 

भारतवर्ष का संविधान ही मिटा सकता है सारे व्यवधान

सदियों बंटे रहे, विदेशियों ने पहनाया परतंत्रता का परिधान

धीरे-धीरे व्यवस्थाएं और समाज बदले, निकल रहा समाधान

सदियों की समस्याएं सुलझती नहीं, कर महज व्याख्यान


हर कोई संविधान छोड़ बना रहा न जाने कौन सा हिंदुस्तान 

लक्ष्य पर निगाह कदम धीरे-धीरे लिए मंजिल का अरमान


समस्याओं को नियम कानून से सुलझाए हमारा संविधान 

जहर भर गया जब सांसों में, कहां फिर एकता का अनुष्ठान


पृथक-पृथक आवाजों ने हिंसा का लिया सहारा देश लहुलुहान 

दुश्मन खड़ा सीमा पर करता आतंकी हमलों का इमकान


युद्ध भेरियां बज चुकीं आतंकियों को पहुंचाना होगा श्मशान 

भारत के लाल उठो, रण की अब तैयारी में दो अपना योगदान

Thursday, May 22, 2025

Utopia

Utopia

Rajiv Ranjan 

Utopia exists, but in our minds

We imagine heaven and hell 

Escape our present existence 

And in the imaginary world dwell


Competition is integral to survival

What comes must go Someday

Survival of the fittest is the law 

That is the way nature eases away


We inhabit an impermanent universe

And nature looks flawed to us all

Its logic we can't still fathom

There is surely a divinity in every fall 


The Truth we all try to eternally unravel 

Science adopts reason and logic

Religion takes a path more complex

Stories, symbols, rituals and even magic

Saturday, May 17, 2025

हनुमान अर्जुन संवाद


हनुमान अर्जुन संवाद

राजीव 'रंजन' 


लेने पूजा के फूल अर्जुन पंहुचने सुंदर उपवन में

रंग-बिरंगे  पुष्पों  को  देख, सोचा  अपने  मन  में

अपने ईश के शीश चढ़ाऊंगा मैं स्नेह भरे हृदय से

हो भाव विभोर लगे वो तोड़ने फूलों को अभय से


कड़कती आवाज आई तब किसी की कहीं पीछे से

मुड़कर देखा बैठा था इक बूढ़ा बंदर आंखें मीचे से

मूर्ख बिना आज्ञा तोड़ता है फूल बता तू किस प्रयोजन

अपने ईश की पूजा हेतु तोड़ रहा हूं ये फूल हे सज्जन


अहा!! अपने चोर देव को चोरी के ही तो फूल चढ़ाएगा

धर्म और अधर्म की परिभाषा कहां मूर्ख तू समझ पाएगा

भड़क उठी क्रोधाघ्नि अर्जुन की बोले व्यंग वो कातर

जाकर पूछो अपने पूज्य से बंदरों से बनवाया पुल क्योंकर


होता कौशल उनके धनुष में जो क्षण में पुल बन जाता

नाहक बेचारे बंदरों को इस कठिन कार्य में न जुतवाता

है इतना कौशल तेरे में तो चल बना एक पुल और दिखला

छोड़ सेना को, देखूं मेरा ही भार वहन कर सकता है क्या


हां मैं बना दूंगा और न बना, तो यहीं जलूंगा चिता पर

क्षत्रिय का यह वचन अटल है बोला अर्जुन गरज‌ कर‌

वाणों की अद्भुत वर्षा की, लगा पुल‌ अपना स्वरुप धरने

देखते देखते आंखों के समक्ष एक बड़ा पुल लगा पसरने 


हनुमान मुस्कुराए, हो खड़े लगे फैलाने बदन गगन में

अर्जुन घबराए, और किया याद प्रभु को हो मगन वे

हनुमान के पग धरते ही पुल गया चरमरा कर टूट

अर्जुन हतप्रध ताक रहे थे जैसे भाग्य गया हो रुठ


क्षत्रिय वचन रखने को पार्थ हो गए मरने को तैयार

हनुमान ने समझाया अमूल्य जीवन यूं गंवाना है बेकार

पर कुंती पुत्र कुल की मर्यादा पर वचन से रहे अटल

हनुमान ने प्रभु से समाधान का किया आग्रह उसी पल


ब्राह्मण भेष में आए कृष्ण और पूछा समस्या क्या है

बातें सुनकर बोले, क्या‌ किसी और ने यह सब देखा है

नहीं देव! हम दोनों के सिवाय नहीं था यहां कोई भी

फिर प्रमाणित कैसे करोगे जग को ऐसा कुछ हुआ भी


पुनः बनाओ पुल दूजा, मैं भी देखूं क्या है यह संभव

अर्जुन लगे बनाने पुल को झोंक अपना सारा‌ विभव

हनुमान ‌ने पुन: पैर धरा जो, डिगा न पुल तनिक भर 

देखा,अदृश्य प्रभु ने, कुर्म रुप में, थाम रखा था झुक कर


अर्जुन ने समझ लिया आज फिर प्रभु ने लाज बचा ली 

हाथ जोड़ कर हनुमान खड़े थे, बोले, मांगो वर अभी ही

आज नहीं समय आने पर अपना समुचित वर मांगूंगा

महाभारत युद्ध में देंगे जो हमारा साथ तब ही जानूंगा


कर प्रणाम प्रभु को, हनुमान ने अर्जुन को दिया वचन

पर शस्त्र नहीं थामूंगा युद्ध में रहूंगा साथ हो पूर्ण मगन

युद्ध में निरंतर ही रहे हनुमान रथ के मस्तक पर सवार

युद्ध घोष से गिराते कौरवों का मनोबल मचा हाहाकार


अस्त्रों के प्रहार से तनिक भी न डिगता था रथ नंदी घोष

विपक्षियों के रथों पर अर्जुन के बाणों का पूरा गिरा रोष

ध्वस्त हुए कई, कई दूर जा गिरे अस्त व्यस्त छटक कर

अर्जुन का रथ न डिगा तनिक भी शत्रु रहे सर पटक कर


महायुद्ध हुआ समाप्त सेनाएं थीं बिखरी सर्वत्र अस्त व्यस्त

कृष्ण ने अर्जुन से रथ से उतरने को कहा हो पूर्ण आस्वस्त

अर्जुन ने हाथ जोड़ प्रभु से पहले उतरने का किया आग्रह

सारथी ने सर्व प्रथम अर्जुन को उतारा कर समुचित दुराग्रह


उतरे जब कृष्ण नंदी धोष से, रथ लगा जलने धू धू कर

किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन लगे रथ को तकने आश्चर्य कर

प्रभु ने तब समझाया हनुमान के प्रताप की ही थी महिमा

अर्जुन का सर झुका चरण में गाते उनकी मन में गरिमा

Saturday, April 5, 2025

ज़िंदगी उदास क्यूं हो!


ज़िंदगी उदास क्यूं हो!

जिंदगी उदास क्यूं हो
दिन बेआस क्यूं हो
मंजिलें और भी हैं
चाहतें और भी हैं
मन पर बस न उसका
तन है  स्वस्थ जिसका
सफ़र सिद्दत से जारी है
अनजान रस्तों की तैयारी है
अब समय है अपने लिए 
आंखों में बाकी सामने लिए
छोड़ो!! जिसे जाना था गया
जिसे आना था आया
जीवन का यह खेल है
अक्सर मिलता बेमेल है
पत्ते वो देता है
खेल हम खेलते हैं
कहां बस में है अपने
बस एक सफर है 
और चलते जाना है
कौतुहल लिए 

राजीव 'रंजन' 
05/04/25
नोएडा

Thursday, March 20, 2025

अदरक कूटने की आवाज

अदरक कूटने की आवाज

राजीव 'रंजन' 

उनींदा सी मेरे कानों को अदरक कूटने की आवाज मंदिर के घंटी सी लगती है

हवाओं को चीरती एक मीठी सी प्यास, सुबह की चाय को तलब  करती है

मैं चुपचाप लेटी आधी सोई आधी जागी, दबे कदमों का करती इंतजार हूं

बगल में कप रखने की हल्की आवाज के लिए दिल थाम रहती बेकरार हूं

एक हल्की सी आवाज़ "मनीषा चाय", कानों को लगती कितनी प्यारी 

मैं करवट बदल, पहली घूंट की, मन ही मन, करती हूं आलस भरी तैयारी 

सुबह के गर्म चाय से मुझे मिलता है वो सुकून जो मेरी समझ से बाहर है

अद्भुत वो पहली घूंट पूरे दिन के लिए जो भरती भरपूर शक्ति मेरे अंदर है

कुहनी पर उचक, अधखुली आंख से, सिकुड़े होंठों से, लगाती सुडुक प्यारी 

अमृत रस जैसे उतरता गले से, तरोताजगी भरता अंदर तक धीरे-धीरे हमारी

औंधी लेट, घूंट दर घूंट,  चाय के साथ विचारों में गुम, मैं सोती उठती रहती हूं

दिन भर के उहापोह के बवंडर  में 

बेझिझक मैं इस परम आनंद के लिए कुछ भी कर सकती हूं  न्योछावर 

तहे दिल से शुक्रिया उस व्यक्ति का जो देता है यह परम सुख, है वो मेरा वर

  (पत्नी के आग्रह पर लिखी है यह कविता। उनकी भावनाएं, मेरे शब्द)

नोएडा

20 मार्च 2025


Tuesday, March 4, 2025

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें 


रुह   ने   जब  पहना   जिस्म  का   जामा

साथ   आईं   ख्वाहिशें    खरामा   खरामा


ख्वाहिशें   कहां    कभी    होती   हैं    पूरी

जिंदगी  भर तड़पा कर भी रहतीं  हैं अधूरी


हम  आधे  अधूरे   ख्वाब   लिए  फिरते  हैं 

दिल में चाहतों  की सौगात  लिए  फिरते हैं 


यूं  ही  ज़िंदगी  में  सौगात  कहां  मिलते  हैं

बगैर मेहनत  बागों में फूल  कहां  खिलते हैं 


बेलगाम बेहिसाब ख्वाहिशें गम का हैं सबब 

इन्हें  वस में रखने की  हिम्मत  दे हमें यारब


राजीव 'रंजन'

नोएडा

04 मार्च 2025

Sunday, March 2, 2025

नदी

नदी

राजीव 'रंजन'

चल पहाड़ों से दूर

निकल, नदी आई है

कल कल छल छल बहती

रस्ते के कष्टो को सहती

प्रकृति को समृद्ध बनाती

समतल रस्तों पर

वेग से उतर आई है

खेतों को कर हरा भरा

पशु पक्षियों की प्यास बुझा

बहती टेढ़े मेढ़े रस्तों पर

शहरों गांवों से होती,

मदमस्त बढ़ती आई है

समुद्र तक का है यह सफर

चिर मिलन की आस लिए

मन में यह विश्वास लिए

सदियों से चलती आई है

जीवन भी है नदी समान

अविरल चलता आया है

जन्म मृत्यु के बंधन काट

महामोक्ष को होने प्राप्त

उत्कट अभिलाषा लिए निस्सीम

अनंत से अनंत तक चलने आया है

Saturday, March 1, 2025

ईश्वर से डर क्यूं?

ईश्वर से डर क्यूं

जो है शक्ति का द्योतक, उससे डर क्यूं
जो है सर्वज्ञ, स्थितप्रज्ञ, उससे भय क्यूं
व्याप्त सबके अन्दर, खोज अन्यत्र क्यूं
भाव का है भूखा, फिर यह आडम्बर क्यूं

कब वो किसी से कुछ कहता और मांगता है
कहां किसी से त्याग और बलिदान चाहता है
हरेक की मांग पर, तथास्तू सदैव कहता है
अन्त:आवाज बन, कर्म की गठरी खोलता है

प्रत्यक्ष तो आता नहीं, हरेक में सदैव बसता है
माध्यम बन, विभिन्न गुणों से सबको  रचता है
कर प्रयोग उनका, देवत्व को प्राप्त हो सकता है
क्यों भटकना इधर उधर जब वो हममें व्याप्त है

ईश्वर का डर दिखा, करते हैं अपना उल्लू सीधा
स्वर्ग और नरक का भय बिठा, पैदा करते हैं दुविधा
अनपढ़ भी पोथी पढ़, श्लोक बांच, करते गुमराह हैं
भविष्य का डर बता, स्वार्थ सिद्धि का चुनते राह हैं

धर्म का, धर्म के ठेकेदारों ने किया बहुत दुरुपयोग है 
अपनी शक्ति, धन, स्वार्थ हेतु किया नित्य उपयोग है
लोगों के मन में अदृश्य डर, अंधविश्वास से उभारा है
कर्म काण्ड के मायाजाल में नित्य ही उलझाया है

है वो सर्व शक्तिमान, सर्व व्याप्त, सर्वज्ञ, दानवीर
प्रकृति के नियमों को रच, करता प्रेरित, बनो कर्मवीर
है वो निराकार, स्वयं तो आता नहीं, बस कृपा आती है
शरीर, बुद्धि, भावना  विवेक को माध्यम बनाती है

विडम्बना कि, शक्ति दाता ही भय का कारण है बना
हमारी सोच, विचार क्रियाशीलता को परस्पर है हना
समाज में विषमता, वैमनस्य, फूट उसके नाम फैलाया
गरीब, अशिक्षित, बेरोजगारो को बहकाया, भरमाया 

धर्म के खेल का माया जाल काटना है नहीं आसान
शिक्षा, विज्ञान, इन्सानियत, प्रगति ही है समाधान
पर जब शिक्षित भी अंधविश्वास नहीं हैं छोड़ पाते
देश व समाज के समक्ष, बड़ा प्रश्न चिन्ह हैं छोड़ जाते

ईश्वर द्योतक है प्रेम का, साहस का, भक्ति का, बल का
कहां स्थान इन सब में है भय का, चिन्ता का, डर का
पवित्र यह अनुभूति, जो, आत्मा को कर प्रकाशित
मार्ग को प्रशस्त करती, चेतना को करती प्रज्वलित

राजीव सिंह
नोएडा
१५ अक्टूबर २०१९