Sunday, March 2, 2025

नदी

नदी

राजीव 'रंजन'

चल पहाड़ों से दूर

निकल, नदी आई है

कल कल छल छल बहती

रस्ते के कष्टो को सहती

प्रकृति को समृद्ध बनाती

समतल रस्तों पर

वेग से उतर आई है

खेतों को कर हरा भरा

पशु पक्षियों की प्यास बुझा

बहती टेढ़े मेढ़े रस्तों पर

शहरों गांवों से होती,

मदमस्त बढ़ती आई है

समुद्र तक का है यह सफर

चिर मिलन की आस लिए

मन में यह विश्वास लिए

सदियों से चलती आई है

जीवन भी है नदी समान

अविरल चलता आया है

जन्म मृत्यु के बंधन काट

महामोक्ष को होने प्राप्त

उत्कट अभिलाषा लिए निस्सीम

अनंत से अनंत तक चलने आया है

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