Wednesday, November 13, 2024

अंतरात्मा और अहंकार


अंतरात्मा और अहंकार


राजीव 'रंजन'

07/04/2023


आत्मा और शरीर से उत्पन्न  मानव की  विविध  गतियां

एक में  शुद्ध, शाश्वत, सत्य, सद्गुणों  से उत्पन्न वृत्तियां 

दूसरे में  शरीर, संसार, समय के अनुरुप मानव कृत्तियां


अंतरात्मा की  दबी पुकार

अहंकार का बढ़ता हुंकार 


अंदर से उपजी आवाज  सिर्फ स्वयं  को  ही  सुनाई  देती

हमेशा सही ग़लत, अच्छा  बुरा  के  मापदंड   पर  तौलती

सुने न सुने, पर अहसास दिलाती, मन को नित्य कचोटती


अंतरात्मा कभी न शांत

अहंकार हमेशा मधांन्ध


आत्मा, प्रकृति प्रदत्त वह  चेतना, जो  ब्रह्मांड से  है जुड़ी 

भौतिक शरीर, उस चेतना का स्थूल रुप और मुख्य कड़ी 

अंतरात्मा की दबी आवाज, मार्ग  दर्शक सी  सदैव खड़ी


अंतरात्मा सही  ग़लत  का  मापदण्ड

अहंकार शक्ति और प्रतिष्ठा का घमंण्ड


अहंकार जग, काल, व्यक्तित्व  की  पहचान  बन  उफनती

नैतिक अनैतिक को रौंद, स्वार्थ सिद्धि हेतु अक्सर पनपती

अहंकार आग्नेय बन सर्वस्व स्वाहा करने की क्षमता रखती


अंतरात्मा जैसे  राम की

अहंकार जैसे रावण का


'अंतरात्मा क्या है?' यह  सारगर्भित  प्रश्न  हमे  करता विचलित 

'अहंकार क्यूं है?' यह  सब के व्यक्तित्व  में रहता सम्मिलित

दोनों  मनुष्य  के विकास  और मान्यताओं  से रहते  उद्धृत 


अंतरात्मा का  प्रवाह अविरल

अहंकार जैसे क्षणिक हलचल






Saturday, November 9, 2024

आस - हिन्दी कविता राजीव 'रंजन'

आस

एक   आस   मन   में  जगा   कर
एक   सोच   मन   में   बैठा   कर 

विश्वास    स्वयं    में    बढ़ा    कर 
भविष्य   कल्पना  से   सजा  कर

धर  नित्य   कदम   कुछ पथ  पर
बढ़   चला  मैं   अपने  लक्ष्य   पर

कष्ट  अनेकानेक   भी    सह  कर 
डटा  रहा  हर  हाल  में  जम  कर 

स्नैह   स्नैह   पथ     हुआ  प्रशस्थ
रास्ता  भी  कटता   दीखा  समस्त

पथ के कष्ट  भी अब  हुए आसान
सब संभव है अगर लें  मन में ठान

राजीव 'रंजन'
04 दिसम्बर 2022

मेरे जूते - हिन्दी कविता राजीव 'रंजन'

मेरे जूते
राजीव "रंजन"

मेरे जूते, जब भी रहते, रहते हैं साथ
पांव में भी ये हमेशा होते साथ साथ
मेरे पांवों को बखूबी हर पल बचाते
तत्परता से हर रस्ते के कष्टों को सह जाते
रोड़े हों, कांटें हों, उभढ़ खाभड़ हो
सीधे टेढ़े, आढ़े तिरझे रस्तों पर 
मेरे पांवों को कभी भी आंच न आने देते
हर पल मेरे जूते रहते मेरे साथ निस्वार्थ
घर आ, पांव से निकाल, मैं रख देता कोने में
करते वो इन्तज़ार मेरा निरंतर
एक दिन गौर से देखा उन्हेंं उठा दोनों हाथ
कील चुभी थे, कंकड़ गडा़ था, सोल घिसा था
वाह रे मेरे प्यारे जूतों, सब सहा, पर उफ न किया
लगा जैसे कह रहे हों, "हम तो तुम्हारे लिए ही बने हैं,
यह काम है हमारा, प्यार करते हैं तुमसे!
और प्यार में, हम सिर्फ दे ही सकते हैं 
यही छोटी सी कहानी है हमारी।"
सोच में पड़ गया मैं!!!
क्या हम भी कहानी हैं किसी के जीवन की ? 
निश्च्छल प्यार बांटते, बिना उम्मीद, अगाध??!!
प्यार पाने की कल्पना हम सब की है
पर पाने और देने में यही तो फर्क है
देना अपने बस में है, और पाना औरों के। 

हमारे बाबा - बाबू रघुनाथ सिंह जी

हमारे बाबा - बाबू रघुनाथ सिंह जी

राजीव 'रंजन'


सुबह आजी तुलसी को पानी देतीं

बाबा नीम के दातुन तोड़ते

चाचा दालान खरहरते

चाची चुल्हा लीपतीं, नाश्ते की तैयारी करतीं

बाबा खेत की ओर निकल पड़ते

हाथ में लोटा और दातुन ले सारे खेत धूम आते

लौटते पोखरा पर दातुन कर कुल्ला करते

साथ ही नहां लेते

बाबा के आते ही सभी घाट छोड़ देते

बड़ों का आदर जो ठहरा

उनके जाते ही फिर बच्चों की धमा-चौकड़ी

गीले ही गावटी गमछा लपेट शिवाला पर जल चढ़ाते

रास्ते में सभी रास्ता छोड़ आदर से कगार हो जाते 

आजी को मालूम था लौट खराई तोड़ेंगे

गुड़ की भेली, पानी और कपड़े ले दरवाजे पर मिलतीं

चाचा चिलम चढ़ा लाते, आजी नास्ता लातीं

शिवमंगल दूबेजी, बाबा के परम मित्र, आ जाते

फिर तो ठहाकों के बीच दुनिया की सारी खबर होती

सरकार की शिकायत से नहर में पानी का आना होता

धीरे धीरे और लोग जुड़ते जाते, मजमा लग जाता

दोपहर तक हर खबर, हर चर्चा आम होती, जीवन होता

खाना खा बाबा आराम से सोते, उठाया तो वज्रपात

शाम फिर गुलजार, गवनई अक्सर होती या रामायण चर्चा

गोरख, मक्खन, जलील, अर्जुन सब दरी पर बैठे होते

बाबा को ढोलक और खंजड़ी बजाने का शौख था

कजरी, बिरहा, पुरबिया, बिदेशिया, चैता का समां होता

गांव में जब कोई नहीं पढ़ा था तो उन्हो ने बेटे को पढ़ाया

मान्यता थी कि, 'जो हाई स्कूल करता है अंधा हो जाता है'

बड़ी मुश्किलों से, सबके विरोधों के विपरीत कॉलेज भेजा

बाबूजी जब प्रशासनिक सेवा में आए तो बाबा जिद्द कर बैठे

"द्वार पर अब हमें हाथी बांधनी है", बाबूजी परेशान

इतना पैसा कहां से आएगा, नई नई नौकरी है

खाना पीना छोड़ घर से निकल पड़े, मनाने वाले पीछे पीछे

बनारस के घाट पर गांव के परिचित ने पहचाना

हार कर सोनपुर मेला से कर्जा गुलाम ले हाथी आयी

दस गांव उमड़ पड़ा हाथी दरवाजे पर देखने 

गांव से गुजरती हुई एक दिन हाथी ने गन्ना तोड़ लिया

बाबू साहब नाराज और लाठी से हाथी को दे मारा

हाथी डरकर भाग निकली, बाबा की इज्जत मिट्टी में

परम मित्र बोले "मलिकार नर होता तो ऐसा न होता" 

बाबा पुनः जिद्द में, अगले वर्ष सोनपुर मेला गए बदल लाए

फिर क्या मजाल कि कोई उसके पास भी फटक ले

बाबा बिरले ही हाथी पर चढ़ते, पर शान सातवें आसमान

हम लोग जब गांव जाते बलिया स्टेशन पर हाथी रहती

उनका हुक्म था उसी पर चढ़ कर गांव आना है

सामान पीछे पीछे रिक्शे पर कोई कारिंदा लाता

बाबा द्वार छोड़ कहीं न जाते, अकेले भी खंजड़ी बजाते

धोडे़ और हाथी के देशी इलाज में माहिर

दूर दूर से लोग आते इलाज और सलाह के लिए

दालान पर बहुत बड़ी चौकी बिस्तर समेत बिछी रहती 

साधूओं और रिश्तेदारों का हमेशा मजमा लग रहता

आजी भुनभुनाती, "सब ऐसे ही लुटा देंगे ये" 

"बाबू रघुनाथ सिंह का आक्समिक देहांत हो गया" 

औरंगाबाद, बिहार से हम जैसे तैसे गांव पहुंचे 

वो दालान, वो करीने से बिछी बिस्तर सूना‌ पड़ा था

इसे गुलजार करने वाला अब न रहा

हाथी भी थोड़े दिनों बाद बेच दी गई, उनके मित्र भी न रहे

वो चोकी, वो चिलम, वो दालान, वो हथिखाना वहीं हैं

पर वो रौनक कहां उस दालान की जो बाबा ने सजाई थी

निर्जीव नहीं, इन्सान जान फूंकते है चीजों में

और रह जाती हैं उनकी अमिट यादें, उनके फसानों में 

बाबूजी की चिठ्ठी - "तुम्हारी चिठ्ठी नहीं आई"

बाबूजी की चिठ्ठी
"तुम्हारी चिठ्ठी नहीं आई"

स्कूल के हाॅस्टल में रहता था 
बाबूजी हमेशा चिठ्ठी लिखते 
कम से कम सप्ताह में दो
मिलती क्लास खत्म होने के बाद
संबोधन, आशीष के बाद प्रश्न होता
'तुम्हारी चिठ्ठी नहीं आई? 
तुम ठीक तो हो? ध्यान रखना'
उनकी चिठ्ठी के साथ आती 
मेरी भी लिखी चिट्ठी, लाइन लगी
बकायदे सभी सुधार के साथ
सारी खबर होती, सब बयां होता
नसीहत होती, हिदायत होता
गांव घर की भी बातें होतीं
वर्षों बीते, युग बीता, चिठ्ठी बीती
व्यस्तता बढ़ती गई, परिवार भी बढ़ा
बाबूजी को अक्सर फोन कर लेता था
पर वो हमेशा चिठ्ठी लिखने पर जोर देते
मैं कहता, 'फोन तो है, बात हो ही जाती है'
पर वो कहते, 'तुम नहीं समझते'
फोन पर बात दस मिनट में खत्म
पर तुम्हारी चिट्ठियां बार बार पढ़ता हूं
हर बार लगता है, तुम सामने बैठे हो
मन में ही तुमसे जब चाहता हूं मिल लेता हूं 
लिखी मैंने चिट्ठियां समय निकालकर 
उनके जाने के बाद मिली वो सारी चिट्ठियां
बकायदे जगह जगह 'अण्डरलाइन्ड'
आज जब अपने बच्चे चले गए
बाबूजी की बात समझ में आई
फोन और चिठ्ठी में क्या फर्क है
वहीं जो किताब और लेक्चर में हैं
दोनों तथ्यों भावनाओं से परिपूर्ण 
पर एक स्थाई दूसरा क्षणभंगुर 

राजीव 'रंजन'
फिलाडेल्फिया
09 अगस्त 2022

Thursday, November 7, 2024

Life

Life
Rajiv 'Ranjan' 

Life is an interesting journey indeed
We all have our own etched in our deed

No two journies will ever be the same
Each like the rythme has time line game

There is a starting line and one to finish 
Why compare ourselves and punish

Saunter on your life path at your own pace
Enjoy the journey with humility and grace

Discover your purpose that fuels each day
Small improvements daily lead the way

Focus and perceiverence and timely rest 
Achieves more and makes the journey best

Approach tasks with curiosity of
 a beginner 
Embrace imperfections and be a learner

Body is the temple that houses the soul 
Eat prudently and less should be our goal

Happiness is a state of mind that we create
Choose to be happy whatever be the state