Saturday, November 9, 2024

हमारे बाबा - बाबू रघुनाथ सिंह जी

हमारे बाबा - बाबू रघुनाथ सिंह जी

राजीव 'रंजन'


सुबह आजी तुलसी को पानी देतीं

बाबा नीम के दातुन तोड़ते

चाचा दालान खरहरते

चाची चुल्हा लीपतीं, नाश्ते की तैयारी करतीं

बाबा खेत की ओर निकल पड़ते

हाथ में लोटा और दातुन ले सारे खेत धूम आते

लौटते पोखरा पर दातुन कर कुल्ला करते

साथ ही नहां लेते

बाबा के आते ही सभी घाट छोड़ देते

बड़ों का आदर जो ठहरा

उनके जाते ही फिर बच्चों की धमा-चौकड़ी

गीले ही गावटी गमछा लपेट शिवाला पर जल चढ़ाते

रास्ते में सभी रास्ता छोड़ आदर से कगार हो जाते 

आजी को मालूम था लौट खराई तोड़ेंगे

गुड़ की भेली, पानी और कपड़े ले दरवाजे पर मिलतीं

चाचा चिलम चढ़ा लाते, आजी नास्ता लातीं

शिवमंगल दूबेजी, बाबा के परम मित्र, आ जाते

फिर तो ठहाकों के बीच दुनिया की सारी खबर होती

सरकार की शिकायत से नहर में पानी का आना होता

धीरे धीरे और लोग जुड़ते जाते, मजमा लग जाता

दोपहर तक हर खबर, हर चर्चा आम होती, जीवन होता

खाना खा बाबा आराम से सोते, उठाया तो वज्रपात

शाम फिर गुलजार, गवनई अक्सर होती या रामायण चर्चा

गोरख, मक्खन, जलील, अर्जुन सब दरी पर बैठे होते

बाबा को ढोलक और खंजड़ी बजाने का शौख था

कजरी, बिरहा, पुरबिया, बिदेशिया, चैता का समां होता

गांव में जब कोई नहीं पढ़ा था तो उन्हो ने बेटे को पढ़ाया

मान्यता थी कि, 'जो हाई स्कूल करता है अंधा हो जाता है'

बड़ी मुश्किलों से, सबके विरोधों के विपरीत कॉलेज भेजा

बाबूजी जब प्रशासनिक सेवा में आए तो बाबा जिद्द कर बैठे

"द्वार पर अब हमें हाथी बांधनी है", बाबूजी परेशान

इतना पैसा कहां से आएगा, नई नई नौकरी है

खाना पीना छोड़ घर से निकल पड़े, मनाने वाले पीछे पीछे

बनारस के घाट पर गांव के परिचित ने पहचाना

हार कर सोनपुर मेला से कर्जा गुलाम ले हाथी आयी

दस गांव उमड़ पड़ा हाथी दरवाजे पर देखने 

गांव से गुजरती हुई एक दिन हाथी ने गन्ना तोड़ लिया

बाबू साहब नाराज और लाठी से हाथी को दे मारा

हाथी डरकर भाग निकली, बाबा की इज्जत मिट्टी में

परम मित्र बोले "मलिकार नर होता तो ऐसा न होता" 

बाबा पुनः जिद्द में, अगले वर्ष सोनपुर मेला गए बदल लाए

फिर क्या मजाल कि कोई उसके पास भी फटक ले

बाबा बिरले ही हाथी पर चढ़ते, पर शान सातवें आसमान

हम लोग जब गांव जाते बलिया स्टेशन पर हाथी रहती

उनका हुक्म था उसी पर चढ़ कर गांव आना है

सामान पीछे पीछे रिक्शे पर कोई कारिंदा लाता

बाबा द्वार छोड़ कहीं न जाते, अकेले भी खंजड़ी बजाते

धोडे़ और हाथी के देशी इलाज में माहिर

दूर दूर से लोग आते इलाज और सलाह के लिए

दालान पर बहुत बड़ी चौकी बिस्तर समेत बिछी रहती 

साधूओं और रिश्तेदारों का हमेशा मजमा लग रहता

आजी भुनभुनाती, "सब ऐसे ही लुटा देंगे ये" 

"बाबू रघुनाथ सिंह का आक्समिक देहांत हो गया" 

औरंगाबाद, बिहार से हम जैसे तैसे गांव पहुंचे 

वो दालान, वो करीने से बिछी बिस्तर सूना‌ पड़ा था

इसे गुलजार करने वाला अब न रहा

हाथी भी थोड़े दिनों बाद बेच दी गई, उनके मित्र भी न रहे

वो चोकी, वो चिलम, वो दालान, वो हथिखाना वहीं हैं

पर वो रौनक कहां उस दालान की जो बाबा ने सजाई थी

निर्जीव नहीं, इन्सान जान फूंकते है चीजों में

और रह जाती हैं उनकी अमिट यादें, उनके फसानों में 

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