अविरल
राजीव 'रंजन'
अविरल जीवन की धारा
अनजान हैं इसकी राहें
अनवरत है चलते जाना
अनंत की फैली बाहें
अज्ञानता खड़ी मुंह बाए
पथ अंधकार बनाने को
है बुद्धि विवेक सहारा
ज्योति सर्वत्र फैलाने को
यह काल चक्र अविरल है
अनंत से अनंत तक फैला
ब्रह्मांड इसी में सिमटा
रहता है राज लिए गहरा
अविरल श्रृष्टि के हम सब
हैं क्षणिक काल की कृतियां
है नश्वर, सब है माया
उस कलाकार की वृत्तियां
क्षणभंगुर है यह जीवन
आशाओं में हर पल लिपटा
महत्वाकांक्षाएं लिए अनंत
है अपने आप में सिमटा
सागर की अविरल लहरें
ललचातीं क्षणिक मिलन को
कूलों को छू भर आतीं
जातीं वो लौट मगन हो
लालिमा क्षितिज पर छाई
थक अस्त हुआ दिवाकर
फिर प्रातः पुनः निकलना
आशा भर जाता प्रभाकर
जीवन की इस बगिया में
उस व्यक्ति का मिल जाना
जो स्नेह करे न्योछावर
वसंत का ज्यों है आना
है मिलना और बिछड़ना
सिक्के के दो बस चेहरे
दिन और रात हैं जैसे
समय के राज वो गहरे
पाकर वो स्नेह तुम्हारा
भीगा अंत: मन मेरा
अघा गया हूं तब से
मैं चिर कृतध्य हूं तेरा
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