Tuesday, March 4, 2025

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें 


रुह   ने   जब  पहना   जिस्म  का   जामा

साथ   आईं   ख्वाहिशें    खरामा   खरामा


ख्वाहिशें   कहां    कभी    होती   हैं    पूरी

जिंदगी  भर तड़पा कर भी रहतीं  हैं अधूरी


हम  आधे  अधूरे   ख्वाब   लिए  फिरते  हैं 

दिल में चाहतों  की सौगात  लिए  फिरते हैं 


यूं  ही  ज़िंदगी  में  सौगात  कहां  मिलते  हैं

बगैर मेहनत  बागों में फूल  कहां  खिलते हैं 


बेलगाम बेहिसाब ख्वाहिशें गम का हैं सबब 

इन्हें  वस में रखने की  हिम्मत  दे हमें यारब


राजीव 'रंजन'

नोएडा

04 मार्च 2025

Sunday, March 2, 2025

नदी

नदी

राजीव 'रंजन'

चल पहाड़ों से दूर

निकल, नदी आई है

कल कल छल छल बहती

रस्ते के कष्टो को सहती

प्रकृति को समृद्ध बनाती

समतल रस्तों पर

वेग से उतर आई है

खेतों को कर हरा भरा

पशु पक्षियों की प्यास बुझा

बहती टेढ़े मेढ़े रस्तों पर

शहरों गांवों से होती,

मदमस्त बढ़ती आई है

समुद्र तक का है यह सफर

चिर मिलन की आस लिए

मन में यह विश्वास लिए

सदियों से चलती आई है

जीवन भी है नदी समान

अविरल चलता आया है

जन्म मृत्यु के बंधन काट

महामोक्ष को होने प्राप्त

उत्कट अभिलाषा लिए निस्सीम

अनंत से अनंत तक चलने आया है