अदरक कूटने की आवाज
राजीव 'रंजन'
उनींदा सी मेरे कानों को अदरक कूटने की आवाज मंदिर के घंटी सी लगती है
हवाओं को चीरती एक मीठी सी प्यास, सुबह की चाय को तलब करती है
मैं चुपचाप लेटी आधी सोई आधी जागी, दबे कदमों का करती इंतजार हूं
बगल में कप रखने की हल्की आवाज के लिए दिल थाम रहती बेकरार हूं
एक हल्की सी आवाज़ "मनीषा चाय", कानों को लगती कितनी प्यारी
मैं करवट बदल, पहली घूंट की, मन ही मन, करती हूं आलस भरी तैयारी
सुबह के गर्म चाय से मुझे मिलता है वो सुकून जो मेरी समझ से बाहर है
अद्भुत वो पहली घूंट पूरे दिन के लिए जो भरती भरपूर शक्ति मेरे अंदर है
कुहनी पर उचक, अधखुली आंख से, सिकुड़े होंठों से, लगाती सुडुक प्यारी
अमृत रस जैसे उतरता गले से, तरोताजगी भरता अंदर तक धीरे-धीरे हमारी
औंधी लेट, घूंट दर घूंट, चाय के साथ विचारों में गुम, मैं सोती उठती रहती हूं
दिन भर के उहापोह के बवंडर में
बेझिझक मैं इस परम आनंद के लिए कुछ भी कर सकती हूं न्योछावर
तहे दिल से शुक्रिया उस व्यक्ति का जो देता है यह परम सुख, है वो मेरा वर
(पत्नी के आग्रह पर लिखी है यह कविता। उनकी भावनाएं, मेरे शब्द)नोएडा
20 मार्च 2025