खिलौने
राजीव 'रंजन'
बचपन में, हम सब मचल उठते थे खिलौनो के लिए
वो मिट्टी की छोटी रंग-बिरंगी गाड़ी
जब चलती, ढ़ोल बजता
वो तोते, जिनके लटक घुमाने पर, चोंच मारते
बड़े हुए, फुटबॉल और क्रिकेट ने स्थान लिया
कंचों की तो बात न पूछो
ढेरों इकठ्ठा करते
तरह तरह के डिजाइन वाले
लट्टू, पतंग, मांझे, गिल्ली डंडा कितना भाते
उम्र के साथ खिलौने बदलते गए
मोबाईल अब नए खिलौने हैं
एक दूसरे को बस खूबियां गिनाते हैं
नए माॅडल के लाॅन्च होते ही मचल उठते हैं
अगर आईफोन हाथ में हो, और वो भी लेटेस्ट
तो फिर क्या बात, आप शेर हैं इस जंगल के
झलका लें उसका जितना चाहें
ऐंड्रॉयड वाले लाल पीले हुए जाते हैं
उसकी ढेरों खूबियां गिनाते हैं
और आईफोन की कमियां दर्शाते हैं
गाड़ी की तो बात ही मत पूछो
मेरी दादी कहतीं, "गाड़ी का मजा तब है"
"जब निकलें तो औरों की नजर उठ जाए"
नौकरी वाले, रिटायर्ड , व्यापारी या नेता
सब अपनी गाड़ी झलकाते जरुर हैं
गाड़ियों में बकायदा जाति प्रथा है
आउडी और फरारी वाले फर्र से निकल जाते हैं
खास हैं, आम की तरफ ताकते भी नहीं
एक आध कुचल भी गए तो कोई बात नहीं
व्यवस्था उनकी है, कौन पूछेगा उनसे
थोड़ा शोर मचाकर सब चुप हो जाएंगे
कोर्ट कचहरी में वर्षों लग जाएंगे
काबिल वकील उन्हें बचा लाएंगे
सब पैसे और पावर का खेल है
आज कल जिसे देखो घर को स्वर्ग बनाने में लगा है
आर्किटेक्ट, इन्जीनियर, डिजाइनर करतब दिखा रहे हैं
गेटेड़ कम्युनिटी, कल्ब हाउस, गार्ड, पार्क, जिम
गरीब को उसकी औकात दिखा रहे हैं??
और वे स्वर्ग के गेट पर ही रोके जा रहे हैं
गरीब हर तरफ - सड़कों पर, खेतों में, फैक्ट्रियों में
उनके स्वर्ग की व्यवस्था बनाने में लगे हैं
अपने जीवन के जद्दोजहद में पिसते
लाचारी और परेशानियां से जूझते
जीवन से अपना रिस्ता निभा रहे हैं
और हम अपने खिलोनों में मशगूल, बेखबर से
अपने अपने खिलोनों से खेले जा रहे हैं