Thursday, October 5, 2023

मेरी अलमारी

मेरी अलमारी
राजीव 'रंजन'

हर बार आलमारी खोल मैं दुविधा में रहता हूं, क्या पहनूं? 
कपडें खानों में करीने से सजे हैं; कमीजें पैटें, कुर्ता पाजामा
नजर दौड़ता हूं, घूम फिर कर वही दो चार पर टिकती हैं
कुछ से जैसे अपनत्व सा हो गया है, सुकून मिलता है
सोचता हूं कभी दो चार ही होते थे,उन्हीं से सज संवर लेते थे
कहां चुनने का अवसर था, धो धा कर फिट रखते थे
तह लगाकर करीने से क्रीज़ लगाने की भी अपनी कला थी
गद्दे के नीचे ठीक से दबा कर रख देते, सुबह तक तैयार
इस्त्री पीतल के लोटे में कोयले की आग भर कर भी की
कभी भारी भरकम कोयले की आग वाली पड़ोसी से लाए
सम्भाल कर इस्त्री करनी पड़ती थी, कहीं आग न गिर जाए
एक बार सपरिवार सिनेमा जाना था, सब तैयारी में मसगूल
मेरी पैंट जल गयी, बाबूजी बड़े नाराज, सजा 'घर पर रहो'
लगा बज्रपात हो गया, कहर टूट पड़ा, पर बाबूजी नहीं माने
बडे़ और छोटे भाईयों ने लौट कर बहुत चिढ़ाया 
कपड़े होली और दसहरे में बनते थे, क्या समा होता
हर कोई अपने अपने फैसन के अनुसार फरमाइश करता
पर बाबूजी अग्रवाल स्टोर से थोक के भाव लट्ठा खरीद लाते
कुर्ती पैजामा होली में और पैंट कमीज दसहरे में सिलते
नमूने की तरह हम सभी एकरंगा पहने लाइन से चलते
एक दूसरे की मांग कर पहनना आम हुआ करता था
तौलिया की तो बात ही मत पूछो, एक ही से सब रगड़ लेते
कूंए पर नहाते हुए एक ही टिकिया साबुन सभी रगड़ते
शादी विवाह के घर में अपनी चीजें छुपानी पड़ती थीं
वर्नी अभी धो कर पसारा ही था कि थोड़ी देर बाद गायब
किसी और की शोभा बढ़ा रहा होता और आप तौलिया में
कितना कुछ बदल गया, अब सबके बाथरुम अलग अलग
तौलिया, गंजी, जांघिया, कमीज, पैंट अब शेयर नहीं होते
बिना सुचना के किसी के घर जाना भी गुनाह से कम नहीं
चीजें कम थीं, दिल बड़ा;आज चीजों की भरमार, पर भावना विहीन

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