Sunday, July 27, 2025

ईश्वर से डर क्यूं?

ईश्वर से डर क्यूं

जो है शक्ति का द्योतक, उससे डर क्यूं
जो है सर्वज्ञ, स्थितप्रज्ञ, उससे भय क्यूं
व्याप्त सबके अन्दर, खोज अन्यत्र क्यूं
भाव का है भूखा, फिर यह आडम्बर क्यूं

कब वो किसी से कुछ कहता और मांगता है
कहां किसी से त्याग और बलिदान चाहता है
हरेक की मांग पर, तथास्तू सदैव कहता है
अन्त:आवाज बन, कर्म की गठरी खोलता है

प्रत्यक्ष तो आता नहीं, हरेक में सदैव बसता है
माध्यम बन, विभिन्न गुणों से सबको रचता है
कर प्रयोग उनका, देवत्व को प्राप्त हो सकता है
क्यों भटकना इधर उधर जब वो हममें व्याप्त है

ईश्वर का डर दिखा, करते हैं अपना उल्लू सीधा
स्वर्ग और नरक का भय बिठा, पैदा करते हैं दुविधा
अनपढ़ भी पोथी पढ़, श्लोक बांच, करते गुमराह हैं
भविष्य का डर बता, स्वार्थ सिद्धि का चुनते राह हैं

धर्म का, धर्म के ठेकेदारों ने किया बहुत दुरुपयोग है
अपनी शक्ति, धन, स्वार्थ हेतु किया नित्य उपयोग है
लोगों के मन में अदृश्य डर, अंधविश्वास से उभारा है
कर्म काण्ड के मायाजाल में नित्य ही उलझाया है

है वो सर्व शक्तिमान, सर्व व्याप्त, सर्वज्ञ, दानवीर
प्रकृति के नियमों को रच, करता प्रेरित, बनो कर्मवीर
है वो निराकार, स्वयं तो आता नहीं, बस कृपा आती है
शरीर, बुद्धि, भावना विवेक को माध्यम बनाती है

विडम्बना कि, शक्ति दाता ही भय का कारण है बना
हमारी सोच, विचार क्रियाशीलता को परस्पर है हना
समाज में विषमता, वैमनस्य, फूट उसके नाम फैलाया
गरीब, अशिक्षित, बेरोजगारो को बहकाया, भरमाया

धर्म के खेल का माया जाल काटना है नहीं आसान
शिक्षा, विज्ञान, इन्सानियत, प्रगति ही है समाधान
पर जब शिक्षित भी अंधविश्वास नहीं हैं छोड़ पाते
देश व समाज के समक्ष, बड़ा प्रश्न चिन्ह हैं छोड़ जाते

ईश्वर द्योतक है प्रेम का, साहस का, भक्ति का, बल का
कहां स्थान इन सब में है भय का, चिन्ता का, डर का
पवित्र यह अनुभूति, जो, आत्मा को कर प्रकाशित
मार्ग को प्रशस्त करती, चेतना को करती प्रज्वलित

राजीव सिंह
नोएडा
१५ अक्टूबर २०१९

अदरक कूटने की आवाज

अदरक कूटने की आवाज

राजीव 'रंजन' 

उनींदा सी मेरे कानों को अदरक कूटने की आवाज मंदिर के घंटी सी लगती है

हवाओं को चीरती एक मीठी सी प्यास, सुबह की चाय को तलब करती है

मैं चुपचाप लेटी आधी सोई आधी जागी, दबे कदमों का करती इंतजार हूं

बगल में कप रखने की हल्की आवाज के लिए दिल थाम रहती बेकरार हूं

एक हल्की सी आवाज़ "मनीषा चाय", कानों को लगती कितनी प्यारी 

मैं करवट बदल, पहली घूंट की, मन ही मन, करती हूं आलस भरी तैयारी 

सुबह के गर्म चाय से मुझे मिलता है वो सुकून जो मेरी समझ से बाहर है

अद्भुत वो पहली घूंट पूरे दिन के लिए जो भरती भरपूर शक्ति मेरे अंदर है

कुहनी पर उचक, अधखुली आंख से, सिकुड़े होंठों से, लगाती सुडुक प्यारी 

अमृत रस जैसे उतरता गले से, तरोताजगी भरता अंदर तक धीरे-धीरे हमारी

औंधी लेट, घूंट दर घूंट, चाय के साथ विचारों में गुम, मैं सोती उठती रहती हूं

दिन भर के उहापोह के बवंडर में 

बेझिझक मैं इस परम आनंद के लिए कुछ भी कर सकती हूं न्योछावर 

तहे दिल से शुक्रिया उस व्यक्ति का जो देता है यह परम सुख, है वो मेरा वर

 (पत्नी के आग्रह पर लिखी है यह कविता। उनकी भावनाएं, मेरे शब्द)

नोएडा

20 मार्च 2025